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जीवन का मकसद क्या है?
इस सवाल का जवाब जब तक मिला आधी जवानी बीत चुकी थी | मगर जो जवाब मिला उसमे जीवन के थहिथ एक अमर ज्योति का प्रकाश मिला | जवाब तो दो अक्षरों में संपूर्ण है; मगर जीवन भर का संगर्ष बन जाता है | वे दो अक्षर हैं "क्षेत्र परिपालन" | क्षेत्र के प्रति सेवा ही जीवन का मकसद है | मगर ध्यान में ये होना चाहिए की क्षेत्र कॆ ज्ञान के साथ जीना अपनॆ आप में एक संगर्ष है | जितना गहराई क्षेत्र में है उतनी ही गहराई परिपालन के प्रति अपनॆ कर्तव्य कॆ पहचान में भी है | परिपालन का मतलब है, जिस का दॆखबाल किया जाता है उसका जीवन, स्वास्त्य और थरक्की की ज़रूरतों को पूरा करना | इन दो शब्दॊ कॊ जब हम गलत मतलब पाने से होता है अधर्म और अधर्म से जुड़ा प्रलय और नाश; सही मतलब से मिलता है प्रवृत्ती | क्षेत्र का समजना उतना ही ज़रूरी है जितना की क्षेत्र के प्रति अपना कर्त्तव्य को समजना और उस कर्त्तव्य का पालन करना |
क्षेत्र का पहचान उसके गुण से होता है. शास्त्र सिकाता है कि क्षेत्र वह हैं:
* जिसके अंग मिटतॆ रहतॆ है
* जो खुद मिटता भी है
* जो अपनॆ आप को नये जनमॊ की थहिथ मिटने से बचाता रहता है
* जो जीवित रहने के लिए कर्म से बंधा रहता है
* ना चाहने पर और किसी भी कोशिश के बिना धूल और विष रोग पाता रहता हैं
* धूल और विष रोग का सफाई करना अपनॆ आप में एक कर्तव्य बन जाता है
* जिसका शरीर जो स्थूल भी हो सकता है या सूक्श्म भी हो सकता है उसकी सीमा का निर्णय करता है
क्षेत्र अपने आप में संपूर्ण भी होता है और दूसरे क्षेत्र से जुड़कर अपने आप में अन्य क्षेत्रों का अंग बनके भी रहता है | ज्ञानी का एक लक्षण ऐसा बी कहा जाता है -"जो क्षेत्र का सम्पूर्ण ज्ञान रकता हो" | क्षेत्र का ही नहीं मगर किसी भी क्षेत्र के प्रति अपना अंग और अपना सम्बन्ध का सही पहचान रखना ज़रूरी है | शास्त्र सिखाता है कि हर जीवन अपने आप में एक क्षेत्र होता है | उस क्षेत्र के अंग हैं शरीर, मन इथ्यादि | यदि शरीर को एक क्षेत्र के रूप में देखा जाए तो उसके अंग हैं हाथ पाऊँ इथ्यादि और हाथ के अंग हैं उंगलियाँ नाकूं वगैरा | अपने शरीर से अलग देखा जाये तो परिवार एक क्षेत्र है जिसके हम अंग हैं| इसी प्रकार हम किसी संस्था के अंग हो सकते हैं, देश के अंग हो सकते हैं, धर्म के अंग, किसी टीम के प्रति हिमायती बनके या खिलाडी बनके उसका अंग भी हो सकते हैं| कभी अपनी इच्छा से तो कभी अपनी इच्छा के विरुद्ध| मगर अपने क्षेत्रों का और उन क्षेत्रों की प्रति अपना सम्बन्ध का पहचान, उन संबंधों से जुड़े कर्त्तव्य का पालन करना ही हमारा जीवन का मकसद है |
यदि पथ्था को लगे की जड़ सही नहीं और पथ्था अपना कर्त्तव्य छोड़ जड़ की ऒर जा बसे तॊ पेड़ का ही नहीं पेड़ के कुल का भी नाश ही होगा | सांख्य के विचार में हनुमान कहते हैं:
देह भावे दासॊस्मि
जीव भावे त्वगम शाका
आत्मा भावे त्वमेवहम
अर्थात देह के रूप में देखा जाए , तो मै "क्षेत्रज्ञ" का एक नौकर हूँ. जीवन के रूप में देका जाए तो में "क्षेत्रज्ञ" का अंग हूँ | और आत्मा के रूप में देखोगे तो में कुद क्षेत्रज्ञ हूँ|
अब सवाल ये उठते हैं हमारा और क्षेत्र का सम्बन्ध कैसे जुडता है और उस क्षेत्र के प्रति हमारा अंग का पहचान कैसे होता है |
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